श्री विद्या के उपासक श्रीयंत्र या श्रीचक्र की भावना अपने शरीर में करते हैं। इस तरह विद्योपासकों का शरीर अपने आप में श्रीचक्र बन जाता है। अतएव श्री यंत्रोपासक का:
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ब्रह्मरंध्र: बिंदु चक्र
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मस्तिष्क: त्रिकोण
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ललाट: अष्टकोण
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भ्रूमध्य: अंतर्दशार
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गला: बहिर्दशार
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हृदय: चतुर्दशार
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कुक्षि व नाभि: अष्टदल कमल
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कटि: अष्टदल कमल का बाह्यवृत्त
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स्वाधिष्ठान: षोडषदल कमल
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मूलाधार: षोडशदल कमल का बाह्य त्रिवृत्त
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जानु: प्रथम रेखा भूपुर
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जंघा: द्वितीय रेखा भूपुर
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पैर: तृतीय रेखा भूपुर
श्री यंत्र की ब्रह्मांडात्मकता
श्रीयंत्र का ध्यान करने वाला साधक योगीन्द्र कहलाता है। आराधक अखिल ब्रह्मांड को श्री यंत्रमय मानते हैं। अर्थात, श्री यंत्र ब्रह्मांडमय है।
श्री यंत्र का बिंदु और उसकी परिभाषा:
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बिंदुचक्र: सत्यलोक
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त्रिकोण: तपोलोक
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अष्टकोण: जनलोक
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अंतर्दशार: महर्लोक
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बहिर्दशार: स्वर्लोक
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चतुर्दशार: भुवर्लोक
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प्रथम वृत्त: भूलोक
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अष्टदल कमल: अतल
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अष्टदल कमल का बाह्य वृत्त: वितल
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षोडशदल कमल: सुतल
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षोडशदल कमल का बाह्य त्रिवृत्त: तलातल
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प्रथम रेखा भूपुर: महातल
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द्वितीय रेखा भूपुर: रसातल
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तृतीय रेखा भूपुर: पाताल
श्रीयंत्र में स्थित विविध देवता और शक्तियाँ:
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ब्रह्मादि देव, इंद्रादि लोकपाल, सूर्य, चंद्र आदि नवग्रह, अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्र, मेष आदि द्वादश राशियां, वासुकि आदि सर्प, यक्ष, वरुण, वैनतेय, मंदार आदि विटप, अमरलोक की रंभादि अप्सराएं, कपिल आदि सिद्धसमूह, वशिष्ठ आदि मुनीश्वर्य, कुबेर प्रमुख यक्ष, राक्षस, गंधर्व, किन्नर, विश्वावसु आदि गवैया, ऐरावत आदि अष्ट दिग्गज, उच्चैःश्रवा आदि घोड़े, सर्व-आयुध, हिमगिरि आदि श्रेष्ठ पर्वत, सातों समुद्र, परम पावनी सभी नदियां, नगर एवं राष्ट्र ये सब के सब श्रीयंत्रोत्पन्न हैं।
श्रीयंत्र का स्वरूप और संरचना
श्रीयंत्र में सर्वप्रथम धुरी में एक बिन्दु और चारों तरफ त्रिकोण हैं। इसमें:
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पाँच त्रिकोण बाहरी और झुके होते हैं, जो शक्ति का प्रदर्शन करते हैं।
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चार ऊपर की ओर त्रिकोण होते हैं, जो शिव के तीन रूपों का दर्शन कराते हैं।
श्रीयंत्र और उसके तत्व:
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झुके हुए पाँच-पाँच त्रिकोण: ये पाँच तत्व, पाँच संवेदनाएँ, पाँच अवयव, तंत्र और पाँच जन्म को दर्शाते हैं।
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ऊपर की ओर उठे चार त्रिकोण: ये जीवन, आत्मा, मेरूमज्जा और वंशानुगतता का प्रतिनिधित्व करते हैं।
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आठ अंदर की ओर और सोलह बाहर की ओर झुकी पंखुड़ियाँ: ये आध्यात्मिक यात्रा को दर्शाती हैं।
ऊपर की ओर उठी अग्नि, गोलाकार पवन, समतल पृथ्वी और नीचे मुड़ी जल का प्रतीक है। यह ईश्वरानुभव और आत्मसाक्षात्कार का प्रतीक है। यही सम्पूर्ण जीवन का द्योतक है।
श्रीयंत्र की स्थापना का महत्व
यदि मनुष्य वास्तव में भौतिक अथवा आध्यात्मिक समृद्धि प्राप्त करना चाहता है, तो उसे श्रीयंत्र स्थापना अवश्य करनी चाहिए।
शिवजी कहते हैं:
“हे शिवे! संसार चक्र स्वरूप श्रीचक्र में स्थित बीजाक्षर रूप शक्तियों से दीप्तिमान और मूलविद्या के 9 बीजमंत्रों से उत्पन्न, शोभायमान आवरण शक्तियों से चारों ओर घिरी हुई, वेदों के मूल कारण रूप ओंकार की निधि रूप हैं।”
श्री यंत्र के भीतर शक्ति और अस्तित्व
श्री यंत्र के मध्य त्रिकोण के बिंदु चक्र स्वरूप स्वर्ण सिंहासन में शोभायुक्त होकर विराजमान ललिता महात्रिपुरसुंदरी सुशोभित होकर विराजमान हैं।
पंचदशी मूल विद्याक्षरों से श्रीयंत्र की उत्पत्ति हुई है।
पंचदशी मंत्र स्थित “स” सकार से चंद्र, नक्षत्र, ग्रहमंडल और राशियाँ आविर्भूत हुई हैं। जिन लकार आदि बीजाक्षरों से श्री यंत्र के नौ चक्रों की उत्पत्ति हुई है। उन्हीं से यह संसार चक्र बना है।